Vasudev Balvant Phadke| Biography & Facts Vasudev Balvant Phadke |Summary

                                  


वासुदेव बलवन्त फड़के की जीवनी


Vasudev Balvant Phadke| Biography & Facts


Vasudev Balvant Phadke |Summary


वासुदेव बलवन्त फड़के जीवनी , परिवार, शिक्षा, मृत्यु


Vasudev Balvant Phadke Biography


 


★★★ जन्म :

4 नवम्बर, 1845 ई. महाराष्ट्र

★★★ स्वर्गवास :

17 फ़रवरी, 1883 ई. अदन


★★★ उपलब्धियां :


वासुदेव बलवन्त फड़के  ने 1857 ई. की प्रथम संगठित महाक्रांति की विफलता के बाद आज़ादी के महासमर की पहली चिंगारी जलायी थी। वासुदेव बलवन्त फड़के ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह का संगठन करने वाले भारत के प्रथम क्रान्तिकारी थे। वासुदेव बलवन्त फड़के का जन्म महाराष्ट्र के रायगड ज़िले के शिरढोणे नामक गांव में हुआ था। फड़के ने 1857 ई. की प्रथम संगठित महाक्रांति की विफलता के बाद आज़ादी के महासमर की पहली चिंंनगारी जलायी थी।

देश के लिए अपनी सेवाएँ देते हुए 1879 ई. में फड़के अंग्रेज़ों द्वारा पकड़ लिये गए और आजन्म कारावास की सज़ा देकर इन्हें अदन भेज दिया गया। यहाँ पर फड़के को कड़ी शारीरिक यातनाएँ दी गईं। इसी के फलस्वरूप 1883 ई. को इनकी मृत्यु हो गई।माता की मृत्यु:1871 ई. में एक दिन सायंकाल वासुदेव बलवन्त फड़के कुछ गंभीर विचार में बैठे थे।


तभी उनकी माताजी की तीव्र अस्वस्थता का तार उनको मिला। इसमें लिखा था कि वासु (वासुदेव बलवन्त फड़के) तुम शीघ्र ही घर आ जाओ, नहीं तो मां के दर्शन भी शायद न हो सकेंगे। इस वेदनापूर्ण तार को पढ़कर अतीत की स्मृतियाँ फ़ड़के के मानस पटल पर आ गयीं और तार लेकर वे अंग्रेज़ अधिकारी के पास अवकाश का प्रार्थना-पत्र देने के लिए गए। किन्तु अंग्रेज़ तो भारतीयों को अपमानित करने के लिए सतत प्रयासरत रहते थे। उस अंग्रेज़ अधिकारी ने अवकाश नहीं दिया, लेकिन वासुदेव बलवन्त फड़के दूसरे दिन अपने गांव चले आए। गांव आने पर वासुदेव पर वज्राघात हुआ।

जब उन्होंने देखा कि उनका मुंह देखे बिना ही तड़पते हुए उनकी ममतामयी मां चल बसी हैं। उन्होंने पांव छूकर रोते हुए माता से क्षमा मांगी, किन्तु अंग्रेज़ी शासन के दुव्यर्वहार से उनका ह्रदय द्रवित हो उठा।सेना का संगठन:इस घटना के वासुदेव फ़ड़के ने नौकरी छोड़ दी और विदेशियों के विरुद्ध क्रान्ति की तैयारी करने लगे। उन्हें देशी नरेशों से कोई सहायता नहीं मिली तो फड़के ने शिवाजी का मार्ग अपनाकर आदिवासियों की सेना संगठित करने की कोशिश प्रारम्भ कर दी।

उन्होंने फ़रवरी 1879 में अंग्रेज़ों के विरुद्ध विद्रोह की घोषणा कर दी। धन-संग्रह के लिए धनिकों के यहाँ डाके भी डाले। उन्होंने पूरे महाराष्ट्र में घूम-घूमकर नवयुवकों से विचार-विमर्श किया, और उन्हें संगठित करने का प्रयास किया। किन्तु उन्हें नवयुवकों के व्यवहार से आशा की कोई किरण नहीं दिखायी पड़ी।


कुछ दिनों बाद गोविन्द राव दावरे तथा कुछ अन्य युवक उनके साथ खड़े हो गए। फिर भी कोई शक्तिशाली संगठन खड़ा होता नहीं दिखायी दिया। तब उन्होंने वनवासी जातियों की ओर नजर उठायी और सोचा आखिर भगवान श्रीराम ने भी तो वानरों और वनवासी समूहों को संगठित करके लंका पर विजय पायी थी। महाराणा प्रताप ने भी इन्हीं वनवासियों को ही संगठित करके अकबर को नाकों चने चबवा दिए थे। शिवाजी ने भी इन्हीं वनवासियों को स्वाभिमान की प्रेरणा देकर औरंगज़ेब को हिला दिया था।ईनाम की घोषणा:महाराष्ट्र के सात ज़िलों में वासुदेव फड़के की सेना का ज़बर्दस्त प्रभाव फैल चुका था। अंग्रेज़ अफ़सर डर गए थे।

इस कारण एक दिन मंत्रणा करने के लिए विश्राम बाग़ में इकट्ठा थे। वहाँ पर एक सरकारी भवन में बैठक चल रही थी। 13 मई, 1879 को रात 12 बजे वासुदेव बलवन्त फड़के अपने साथियों सहित वहाँ आ गए। अंग्रेज़ अफ़सरों को मारा तथा भवन को आग लगा दी। उसके बाद अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें ज़िन्दा या मुर्दा पकड़ने पर पचास हज़ार रुपए का इनाम घोषित किया। किन्तु दूसरे ही दिन मुम्बई नगर में वासुदेव के हस्ताक्षर से इश्तहार लगा दिए गए कि जो अंग्रेज़ अफ़सर रिचर्ड का सिर काटकर लाएगा, उसे 75 हज़ार रुपए का इनाम दिया जाएगा।

अंग्रेज़ अफ़सर इससे और भी बौखला गए।गिरफ़्तारी: 1857 ई. में अंग्रेज़ों की सहायता करके जागीर पाने वाले बड़ौदा के गायकवाड़ के दीवान के पुत्र के घर पर हो रहे विवाह के उत्सव पर फड़के के साथी दौलतराम नाइक ने पचास हज़ार रुपयों का सामान लूट लिया। इस पर अंग्रेज़ सरकार फड़के के पीछे पड़ गई।

वे बीमारी की हालत में एक मन्दिर में विश्राम कर रहे थे, तभी 20 जुलाई, 1879 को गिरफ़्तार कर लिये गए। राजद्रोह का मुकदमा चला और आजन्म कालापानी की सज़ा देकर फड़के को अदन भेज दिया गया।निधन:अदन पहुँचने पर फड़के भाग निकले, किन्तु वहाँ के मार्गों से परिचित न होने के कारण पकड़ लिये गए। जेल में उनको अनेक प्रकार की यातनाएँ दी गईं। वहाँ उन्हें क्षय रोग भी हो गया और इस महान देशभक्त ने 17 फ़रवरी, 1883 ई. को अदन की जेल के अन्दर ही प्राण त्याग दिए।




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